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9.9.18

लेखक नरपत सिंह राजपुरोहित ह्रदय की कहानी मिठाई वाला

                      कहानी मिठाई वाला
           लेखक - नरपत सिंह राजपुरोहित ह्रदय

           गांव की गली में खेल रहे बच्चों का कौतूहल एकाएक ख़ुशी में बदल गया और सब बच्चे "नरसी काको आयो रे नरसी काको आयो रे " (नरसी चाचा आये नरसी चाचा आये )करके नरसी के घर की तरफ उसके पीछे पीछे भागने लगे । बच्चों का ख़ुश होकर नरसी के घर की तरफ भागने का प्रलोभन ये था कि नरसी आज मिठाई के काम में दूसरी मुसाफिरी पका के गांव आया था और बच्चों को ढेर सारी मिठाइयाँ मिलने वाली थी ।
जी हां ये नरसी का चिकना होकर गांव सूटेड बूटेड होकर आना बच्चो को बहुत भाता था । गली के हर बच्चे का शाही सपना था कि बड़े होकर हम भी मिठाई के काम में जाएंगे और नरसी काका की तरह जेंटलमैन बनकर आएंगे ।

लेकिन नरसी के अतीत के पन्ने वो बच्चे क्या जाने , नरसी उन बच्चों को हँसते खिलते देख अतीत में खो गया , अपने उसी बचपने में  स्कुल की पढ़ाई से लेकर खेल के मैदान मे दोस्तों की मस्ती को याद करते करते ।
वो पहला दिन था जब नरसी आठवी पास कर के पहली बार मिठाई के काम पर जा रहा था ,,
नरसी ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो रहा था ,गांव के ही लाभुजी के साथ महाराष्ट्र जाने के लिए ।  नरसी के पिता ने रिंकी को आवाज लगाई  "बेटा रिंकी भाई रे सामे पाणी रो कळश भर ले आ ,पैलीबार बारे जावे है मजूरी कर'न ने ,सुगन हखरा होवणा चाइजै "  (बेटा रिंकी भाई के सामने पानी का कलश भरकर ले आवो , पहली बार बाहर कमाने जा रहा है तो शगुन अच्छे होने चाहिये ) ।  नरसी ने माँ और पिताजी के चरण छू कर रवानगी की आज्ञा ली तो पिताजी ने भलामन देते हुए कहा , जाओ बेटा चौखी मजूरी करो पढाई में कीं कोनी पड़ियो ,नोंकरियो पछे ई कठैई काच में ई है कोनी , बढ़िया कोम सिखोला तो दो रिपिया मजूरी चौखी होइला । (जाओ पुत्र अच्छी कमाई करो , पढाई में कुछ नहीं रखा , नोकरियां वैसे भी मिलनी नहीं है अच्छा काम करोगे तो दो रुपये कमाई अच्छी ही होगी ) ।

जोधपुर से ट्रेन में सवार होने के बाद लाभुजी के समीप बैठा नरसी नए नए शहरों की रौनके और आने वाले खेतों की हरियाली को निहारते हुए खुश था , मन में गांव से बाहर आने की आजादी लिए नरसी ट्रैन की रफ्तार के साथ मिठाई के काम से अनजान हजार तरह के विचारों में मग्न था ।
नरसी के जीवन में मिठाई का काम क्या क्या उतार चढ़ाव लाएगा , क्या नरसी अपने कार्य में सफल हो पायेगा ?? पढ़िए कहानी की अगली कड़ी में ।

दूसरे ही दिन नरसी और लाभुजी महाराष्ट्र पहुँच गये , दुकान पहुंचे तो सेठ ने जवाहरड़ा (अभिवादन) करते हुए लाभुजी से कहा , बन्ना रो कई नोम है ? पढाई छोड़'र आया है कई (क्या नाम है बन्ना का ? पढाई छोड़कर आये है क्या ) ,, लाभुजी ने नरसी नाम बताते हुए हाँ कहा तो सेठ ने कहा ठीक है जाइये कारखाने ।
कारखाने में आठ दस लोग पहले से काम पे लगे हुए थे , नरसी के लिए सब अनजान , घर से दूर पहली बार इतने अनजानो के साथ नरसी खुद को थोड़ा असहज महसूस कर रहा था । एक कारीगर (हलवाई) ने नरसी से कहा , पढिया कनी सोरा होवता अठे पेंटों तो म्हे ई काळी करावों इज हो , नी जणे अठे तो ऐ कडालिया है अर आ मोरी है (पढ़ लेते तो सुखी रहते , यहां पेंटें तो हम भी काली करवा ही रहे है , नहीं तो यहां तो ये कड़ाहियां है ये मोरी है) ।
घिसो और तब तक घिसते रहो जब तक खुद की शक्ल कड़ाही में नजर न आये ।

शुरुआत के दो तीन दिन तो सब ने नया समझकर ज्यादा काम का भार नहीं दिया तो नरसी को भी ज्यादा समस्या नही हुई , कभी रसगुल्ले तो कभी रबड़ी , राजभोग से लेकर रसमलाई गुलाब जामुन तक के नरसी भी खूब स्वाद ले रहा था , मिठाई के शौकीन नरसी के पेट में ये सब इस तरह जा रहे थे जैसे सूने पड़े कुए में पत्थर जा रहे हो । 

चार-पांच दिन बाद स्टाफ में नरसी के काफी घुल मिल जाने के बाद अब सब लोगो के साथ ही सुबह चार बजे नरसी को भी उठाया जाने लगा । सुबह से सब अपने अपने काम लग जाते लेकिन नरसी सबको काम करते देख रहा था , क्या करूँ क्या न करूँ कुछ समझ ही नहीं आ रहा ।
तभी हेड कारीगर (मुख्य हलवाई) की धाक पड़ती आवाज आई , ऐ छोरा.... ऊभो कई देखे है, मोमाळ आयोड़ो है कई , जा कड़ाई धो'र लेन आ । (ऐ लड़के....
खड़ा-खड़ा क्या देख रहा है, ननिहाल आया है क्या , जाओ कड़ाही धोकर ले आओ) । फिर तो सब लोग नए हेल्पर नरसी को काम ही काम देने लगे ,
वो पाटा धोकर लाओ , वो ट्रे लेकर आओ , चाकू धोकर आवो , काजू भिगो दो , खोवे में मुश्ती लगाओ , झाड़ू लगाओ पोछा लगाओ ।
एक काम खत्म होता नहीं उससे पहले दूसरा काम तैयार । शाम तक कमर के नट बोल्ट ही जाम हो जाते ।
अब मिठाई का मोह नरसी के मन से उतर चूका था ,, घी तेल और दूध से सने हुए कपड़े ,साला ये भी कोई जिंदगी है , सुबह से रात तक गधों की तरह काम करो वो भी सबकी डाँट सुन-सुन के , यहां तक की गांव में बेटा कहके मीठे मीठे बोलने वाले लाभुजी भी यहां डाँटने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे ।
मन इतना ऊब चूका था कि अगर मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है तो नीरसता का नाम नरसी होना चाहिए ।

लाभुजी ने नरसी को अंदर के कमरे में खूंटी में टंगा बूंदी का झरा लाने को कहा , नरसी अंदर झरा लेने गया , तभी अंदर से किसी के गिरने की जोरदार आवाज आई , सभी कमरे की तरफ भागे तो देखते है नरसी सर पकड़े पड़ा है और सर से लहू बह रहा है ।

खूंटी में से झारे के गिरने से नरसी के सर पर मामूली चोट आई थी जिससे खून निकलने लगा था ।
लाभुजी और एक अन्य लड़के द्वारा नरसी को ऑटो रिक्शा में बिठाकर हॉस्पिटल ले जाया गया ।
डॉक्टर ने पट्टी करते हुए कुछ गोलियां लिखकर दी और कहा मामूली चोट है चार दिन ये दवाई ले लो घाव जल्दी सूख जायेगा ।

नरसी की चोट को पांच -छः दिन बीत चुके थे , चोट सामान्य हो गयी थी , नरसी को एक तरफ गुमसुम सा बैठा देख लाभूजी नरसी के पास जाकर बैठे , महाराष्ट्र आने के पश्चात ये पहला मौका था जब लाभूजी ने नरसी के मन की बात जाननी चाही ।
कीकर रे ,,,,,,, इंयों मुंडो उतार कई बैठो है , मन लागे कोनी कई । (क्या रे ,,,,, ऐसे मुंह लटका कर क्या बैठा है मन नहीं लग रहा है क्या ) ।
नरसी पहले तो थोड़ा झुंझलाया फिर हिम्मत करते हुए बोला - म्हने गांव पोंचाय दो , ओ काम म्हारे सळे आवे कोनी (मुझे गाँव पहुंचा दीजिये , ये काम मुझे नहीं जम रहा ) ।
लाभूजी ने समझाना चाहा , देख नरसी मिनिया तो माटी रा ई बणा देइ ला , पण म्याऊं-म्याऊं कीकर करावेला ,, कागला सब जगा काळा र काळा है । (देखो नरसी , बिल्ली तो मिटटी की भी बना दोगे पर उसे म्याऊं- म्याऊं कैसे करवायेगा? कौए सब जगह काले ही काले है ) ।
माना कि तुम यहाँ से काम छोड़ दोगे लेकिन कहीं तो जाकर काम करना ही पड़ेगा और कहीं भी जायेगा तो स्थिति तो यही है।
कल तुम गांव जावोगे वहां क्या गुजरेगी तुम्हारे माता पिता पर जिन्होंने तुझे कितने अरमानों से कमाने भेजा था । गांव वाले तुझे वापस आया देखते ही तेरे घरवालों को ताना मारेंगे कि देखो तुम्हारा बेटा कामचोर है जो वापस भाग आया ।
नरसी को लाभूजी की बात का असर तो हुआ लेकिन मन था कि मिठाई को अपना ही नहीं रहा था ,,
दो दिन बाद कारखाने के लैंडलाइन फोन पर कॉल आया ।
लाभूजी ने फ़ोन उठाया , नरसी के पिताजी के साथ बातचीत करते हुए उनके और गांव के हालचाल पूछे और फिर नरसी को बुलाते हुए कहा - ले रे थारे पापा रो फोन है बात कर , (ये ले तेरे पापा का फोन आया है बात कर )
नरसी ने रिसीवर को कान से सटाते हुए धीरे से बोला हेल्लो , पापा प्रणाम करूँ । सामने से धाक भरी आवाज आई , कीकर रे ,,,,,,, मन लागोड़ो है कई ? काम सावळ मन लगा'न करजे , घणी मिठायों मती खाइजे बेमार पड़ जाला । (कैसे हो ,,,,,, मन लगा हुआ है न ? काम ढंग से मन लगा कर करते रहना और ज्यादा मिठाइयाँ मत खाना नहीं तो बीमार पड़ जावोगे) ।
संसार में पिता का किरदार भगवान ने बहुत अलग बनाया है जिनकी जिम्मेदारी अपनी संतान को संस्कृति संस्कार और सफलता के पथ पर लाने की होती है , यही कारण है कि पिता का प्यार कभी दिखावा नहीं होता ।
उनके द्वारा संतान की भलाई के लिए दी जाने वाली रौबदार सलाह चेतावनी और भलामण में ही प्यार छुपा होता है ।

फोन पर दूसरी आवाज सुनाई दी जो स्नेह दुलार और अपनत्व से भरी थी ,
कीकर बेटा , (कैसे हो बेटा ) ये नरसी की माताजी की आवाज थी ,,
मम्मी परणाम ,, थोरे तबियत सावळ है ? ( प्रणाम मम्मी ,, आप की तबियत ठीक है ? )
हाँ बेटा ठीक है , थने ताव-तप तो कोनी आयो , ध्योंन राखजे थारो ।(हाँ बेटे ठीक है , तुझे बुखार वगैरह तो नहीं आया ? ख्याल रखना अपना )
अरे मम्मी म्हे तो अठे एकदम रेडी रेट हूँ अर म्हारो मन ई घणोई लागे है , थे कई भी सोच मती करजो ठीक है फोन रखूं । ( अरे मम्मी मैं तो यहां एकदम कुशल मंगल हूँ और मेरा मन भी बहुत लग रहा है , आप बिलकुल भी चिंता मत करना ठीक है रखता हूँ फोन । )
घर से दूर रहने वाला व्यक्ति चाहे कितनी भी तकलीफ में हो , लेकिन घरवालों को किसी तरह की चिंता न हो इसलिए हमेशा यही पंक्ति बोलता है ।

साँझ का समय , सभी लोग फटाफट काम निपटाने की जुगत में है , नरसी लाभूज़ी के पास आता है और धीरे से बोलकर इसी शहर में चल रही एक बनिया की कपड़े की दूकान पर काम करने की इच्छा प्रकट करता है ,, जहाँ गाव का ही मुकेश काम कर रहा है ।
लाभुजी ने समझाया कि देखो नरसी काम को मन में बसाओ , ये प्रण लो कि
मुझे ये काम सीखकर ही दिखाना है ।
तुम्हारे को कोई दूसरा काम पकड़ाये उससे पहले ही पहला काम निपटा लो , काम सीखाने से नहीं सीखा जाता , खुद ब खुद सीखना पड़ता है ।

नरसी फिर भी मौन खड़ा था ,
लाभूजी गुस्साते हुए बोले , वा जणे ठीक है जा परो , भटकों रा भचीड़ खायो इज अकल आवेला थने । (ठीक है फिर चला जा कपड़े के काम में , भटकने और ठोकरें खाने से ही अकल आएगी तुझे ) ।

नरसी ने दूसरे दिन से ही कपड़े की दूकान पर कार्य शुरू कर दिया ।
लेकिन यहां तो समस्याएं और बढ़ गयी नरसी के लिए ,
ना किसी कपड़े की जानकारी , ना यहां की भाषा का ज्ञान , समय पर खाना भी नहीं मिल पाता , सेठ लोग डॉटते यहां भी थे ।
मुकेश तो बराबर कार्य कर रहा था लेकिन नरसी की समझ से बहुत दूर था ये काम ।
जैसे तैसे एक महीना निकला था यहां भी , एक दिन लाभूजी आये नरसी का हालचाल जानने तो रोने लगा ।
लाभूजी भी समझ गए कि नरसी को काम यहां जम नहीं रहा है ।
वापस ले गए वही मिठाई के कारखाने में ।
कहते है व्यक्ति अगर एकबार मिठाई के व्यवसाय में काम करने आ जाता है तो मिठाई उसका पीछा छोड़ती नही है ।

अब नरसी के भी दिमाग में लाभुजी की बात समझ आ चुकी थी ।
सुबह जल्दी उठकर सबके साथ फुर्ती और लगन से नरसी काम करने लगा ।
कोई डांटे या कुछ भी कहे लेकिन सबको हाँ जी , हाँ जी करके बस काम से जवाब दे रहा था ।
नरसी को लाभुजी ने कहा था क़ि
अब तो इत्ती कठे तकलीफ है मिठाई में नरसी , म्हे थारे उमर में आया हा जदे काम भी करता अर हेड कारीगर रा कपड़ा भी धो'र देवता हा , गलती हु जावती तो कारीगर म्होरे गरम करियोड़ो सळायो चिपकाय देता ।
(अब तो इतनी कहाँ तकलीफें है मिठाई में नरसी , हम तुम्हारी उम्र में जब यहां आये थे तो काम भी करते थे और मुख्य हलवाई के कपड़े भी धोकर देते थे , अगर हमारे से कभी कोई गलती हो जाती तो गर्म की हुई लोहे की छड़ी चिपका दी जाती थी ) ।
यही कारण था कि नरसी ने मिठाई के काम को तन मन से अपना लिया था । एक ही लक्ष्य था बस यहां से कारीगर बनकर जाना है ।

नरसी को महाराष्ट्र आये हुए एक साल होने को आया था , इस दौरान रक्षाबन्धन और दीपावली की एक एक सीजन भी निकाल चूका था । अब नरसी आधे से ज्यादा काम सीख चूका था ।
इस एक साल में लाभूजी तीन बार गाँव जाकर आ चुके थे । आज नरसी भी गाँव जाने की तैयारी कर रहा था ।
गांव जाने की कितनी ख़ुशी थी वो सिर्फ नरसी ही महसूस कर सकता था ।
सेठ ने सात सौ रूपये प्रति महीना से हिसाब करते हुए नरसी से कहा -
पाछो जल्दी आ जाइजे , हमकले थारे हजार रिपिया तिणखा कर दूँ ला । (वापस जल्दी आना , अबकी बार तेऱी हजार रूपये पगार कर दूंगा )।

आज एक साल बाद नरसी उसी ट्रेन में सवार होकर गांव जा रहा था , अपने दोस्तों अपने गाँव अपने परिजनों से मिलने की मन में अपार ख़ुशी लिए ।
जोधपुर रेलवे स्टेशन पर उतरने पर नरसी को साथ पढ़ने वाला गोपाल मिल गया ।
गोपाल ने बताया कि आठवी में कम नम्बर आने पर उसने भी पढाई छोड़ दी और मिठाई में काम करने गुजरात चला गया था ।
गोपाल की इस एक साल में ये दूसरी मुसाफिरी थी जबकि नरसी की पहली ।
बातों बातों में गाँव के हालचाल पूछते हुए जब गोपाल ने नरसी को एक समाचार बताया तो नरसी का गला रुंध गया , ह्रदय वेदना की पीड़ा से कराह उठा , आँखों से अश्रुधार बहने लगी ।।

       विद्यालय में हिंदी और संस्कृत पढ़ाने वाले गुरूजी नरसी को अतिप्रिय थे , गोपाल ने बताया ह्रदय सम्बन्धी बीमारी के चलते चार माह पहले उनका देहांत हो गया । गांव में उनके रहते किसी भी विद्यार्थी की क्या मजाल जो आलतू फालतू घूम ले ।
उन्होंने कभी किसी लड़के को पिटाई के नाम पर छुआ तक नहीं था पर विद्यार्थियों में उनका हमेशा डर बना रहता था।
उनके इस तरह आकस्मिक निधन की खबर सुन कर नरसी के ह्रदय में बहुत आघात लगा ।

जोधपुर से चलकर गांव के बस स्टेण्ड पर नरसी और गोपाल उतरे तो सामने मिल रहे बड़े बुजुर्गों को प्रणाम करके अपनी संस्कारिता का परिचय देते हुए अपने घर की तरफ बढ़ रहे थे ।
पुरे एक साल से नरसी के घर आने पर घर के सभी सदस्य अति प्रसन्न हुए । एक साल में मिठाई के हवामान ने नरसी के शरीर को काफी विकसित कर दिया था । नरसी के पिताजी को भी लोगों की वाहवाही मिल रही थी , अरे ठाकरों थोरे तो छोरो मोट्यार दिखण लागो है , चौखी मजूऱी करे है । (अरे ठाकुर सा आपका लड़का तो जवान हो गया है और अच्छी कमाई करने लगा है ) ।
नरसी के पिताजी कहते , ओ तो आपां सबों रो आशीष अर बापजी खेतारामजी ऱी किरपा रो फळ है सा । ( ये तो सब हम सब के आशीर्वाद और ब्रह्मऋषि कुलगुरु 1008 श्री खेतेश्वर दाता की कृपा का ही फल है ।)

नरसी को आये दस दिन बीत चुके थे , गांव के ही बजरंग जी को पता चला कि नरसी आया हुआ है तो नरसी के पिताजी के पास आये । जिनकी राजस्थान में ही मिठाई की दूकान है ।
अरे भा सा नरसी ने अपणी दुकोंन माथे भेज दो कनी , आठवीं पढ़ियो लिखियोड़ो है अर घर रो आदमी है तो दुकानदारी बढ़िया करेला । (अरे भैयाजी नरसी को अपनी दुकान पर भेज दीजिये न , आठवी पढ़ा लिखा है और घर का आदमी है तो दुकानदारी बढ़िया करेगा ।)

ना रे ओ तो कारखाने में काम करे है अर खासो भलो काम भी सिखियोड़ो है (नहीं रे ये तो कारख़ाने में काम करता है और काफी काम भी सीखा हुआ है ) ।

अरे हुशियार छोरो है दुकोंनदारी सीख जावेला तो कदैई खुद रो धंधों करेला तो ई अड़चन नी आवेला ।( अरे होशियार लड़का है दुकानदारी सीख जायेगा तो कभी स्वंय का भी व्यवसाय करेगा तो कोई अड़चन नहीं आएगी ।)
ये कहते हुए बजरंग जी ने नरसी के पिताजी के हाथ में बारह सौ के हिसाब से चार महीने का एडवांस पगार और किराये के रूपये थमा दिए । नरसी के पिताजी भी अब ज्यादा कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे सो बात पक्की हो गयी ।

पांच दिन बाद नरसी रवाना हो गया ।
शुरुआत में कारखाने के कार्य की तरह दुकानदारी में भी तकलीफें सैकड़ो थी लेकिन अब नरसी ने इस व्यवसाय से हारना नही बल्कि जीना सीख लिया था ।
खुद में कुछ बड़ा करने की जिद्द और हुनर के कारण नरसी एक डेढ़ महीने में ही काफी अच्छी दुकानदारी सीख गया ।
नरसी के बातचीत के तरीके और प्रेमात्मक रवैये से ग्राहक भी काफी प्रभावित थे ।
पांच महीने यहां भी आये हो गए थे । कई लोगों से मिलने वाली सलाह से अब नरसी का मन दुकानदारी से ऊबने लगा ।
कई लोग कहते दुकानदारी में क्या रखा है , ज्यादा से ज्यादा पांच हजार तक पगार बढ़ेगी , लेकिन कारख़ाने में काम सीख गया और अच्छा कारीगर बन गया तो दस से पंद्रह हजार पगार मिलेगी ।

नरसी ने भी निश्चय कर लिया अब किसी बड़ी दूकान पर जाकर कारखाने में काम करूँगा और कारीगर ही बनूंगा ।
पांच महीने की दूसरी मुसाफिरी करके नरसी वापस गांव रवाना हो गया ।

अरे किण विचारों में पड़ियो है नरसी , (अरे किस विचारों में खोये हो नरसी ) ।
माँ की इस आवाज से नरसी अतीत में बीते दृश्यों से बाहर आया ।
बच्चे मिठाई का आनंद लेकर वापस गली में खेलने जा चुके थे ।
शाम को पिताजी घर पर आये तो नरसी ने चरण स्पर्श किया और पास ही मैं बैठ गया ।
हमकले बेगो घणो आयो रे नरसी , (अबकी बार बहुत जल्दी लौट आया नरसी ? )

नरसी ने प्रत्युत्तर देते हुए कहा , सेल्समेन ऱी नोकरी में कई कोनी पड़ियो , पगार भी इत्ती मिळे कोनी , कारखाने में ही काम करूँला म्हे तो । (सेल्समेन की नोकरी में कुछ नहीं धरा , पगार भी इतनी नहीं मिलती , कारख़ाने में ही काम करूंगा मैं तो) ।
नरसी की माँ ने भी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा , उण बास आळो हरीश भी सेल्समेन रो काम करे , पनरेसौ रिपिया तिणखा मिळे उण में सूं उण रे बाप रे अमल डोडा ई पूरा नी आवे , बिचारा रे घर रो खर्चो निकाळनों ई दोरो हु ज्यावै ।
(उस बास(मौहल्ला) का हरीश भी सेल्समेन का कार्य करता है , पन्द्रह सौ रूपये पगार मिलता है उससे उसके पिताजी के लिए अफीम और डोडा पोस्त भी पुरे नही आ पाते , बेचारे के लिए घर का खर्च निकलना भी मुश्किल हो जाता है ।)

जी हाँ मिठाई वालों के कई बाप ऐसे भी निकले जो अपने अफीम खाने के शौक में औलाद की कमाई और भविष्य लील गये । खुद तो खाते सो खाते चार लोगों को साथ बैठा कर उनको भी खिलवाते है।
इसके विपरित कुछ बेटे भी ऐसे निकले जिनके पिता उम्र भर जी तोड़ मेहनत करते रहे और बेटे अपनी कमाई को छोटी उम्र में ही अफीम खा कर उड़ाते रहे ।

नरसी के पिताजी ने तंबाकू की चीलम से धूँआ फूंकते हुए कहा , अपणे तो आ चायड़ी अर चीलम मिळ जावे जणे राम मिळीया , अमल ने आगो बाळो । (अपने को तो ये चाय और चीलम मिल जाये तो जाने राम मिल गया , अफीम को फेंको दूर ।)

इस बार नरसी का गुजरात जाना हुआ । गुजरात से नरसी ने पूरा काम सीख लिया , यहाँ से नरसी के नाम पर भी कारीगर का ठप्पा लग गया ।
इसके बाद नरसी ने मध्यप्रदेश के भोपाल , गुजरात के अहमदाबाद बड़ोदरा से लेकर पंजाब के लुधियाना चंडीगढ़ तक , मद्रास के केटरिंग कार्य से लेकर
बेंगलुरु हैदराबाद तक , जयपुर से जैसलमेर तक , बुंदेलखंड से उत्तराखंड तक , हिंदुस्तान के विभिन्न शहरों में काम किया ।
इस दौरान बहिन की शादी , बुआजी के मायरा और दादा जी के मृत्युभोज जैसे कई खर्चे नरसी के कमाई करते निकाले जा चुके थे ।

नोकरी की जगह नोकरी और भ्रमण का भ्रमण भी नरसी को साथ साथ होता गया । सोमनाथ , द्वारिका ,सुदामापुरी , खाटूश्याम जी , सालासर बालाजी , रणछोड़दास जी , सिद्धिविनायक , आबू अम्बाजी , चितौड़ हल्दीघाटी , कुरुक्षेत्र जैसे अनेक दर्शनीय स्थल नोकरी के साथ नरसी देख चुका था ।

आज मुम्बई के बोरिवेली में मित्र हंसराज के साथ नोकरी करते हुए जुहू बीच पर घूमने जाने का प्रोग्राम बन ही रहा था कि तभी नरसी का फोन ट्रिंग ट्रिंग करने लगा ,,
नरसी ने कहा , हंसु फोन उठाइजे रे कुण है । (हंसराज फोन रिसीव करके देखो जरा कौन है ) ।

सामने से नरसी के बचपन के मित्र कृष्णा की आवाज थी ,
कृष्णा ने जो ख़ुशी की बात बताई उससे हंसराज भी झूम उठा ।
दौड़ा दौड़ा छत पर खड़े नरसी को खुशखबरी देने गया ।
लेकिन ये क्या हुआ ? नरसी को हंसराज ने जो ख़ुशी की बात बताई उसको सुनते ही नरसी का चेहरा एकदम मायूस हो गया , चेहरे की सारी रौनकें खत्म सी हो गई ।

कृष्णा ने फोन पर हंसराज को बताया था कि नरसी की सगाई होने वाली है
कुछ दिन बाद सगाई वाले नरसी को देखने के लिए गाँव आएंगे ।
हंसराज नरसी का बहुत अच्छा मित्र है और नरसी का इस तरह मायूस होना उसे अच्छा न लगा ।

कई होयो रे , थारे वेटिंग लिस्ट रो ठप्पो हट'र  लाइन हाजिरी में नम्बर लागण आळो है और थूं इंयों मुंडो लटका'र कई बैठो है ? ( क्या हुआ रे , तेरा वेटिंग लिस्ट से ठप्पा हटकर लाइन हाजिरी में नम्बर लगने आया है और तू ये क्या मुंह लटका कर बैठा है ? )

हाल यार हंसु बठे चौपाटी में ई बैठ'र बात करों । ( चल यार हंसराज वहीं चौपाटी में बैठकर बात करते है )

समन्दर अपनी मस्ती में लहरों को उठा-उठा कर किनारे पर पटक रहा है जिसकी बून्दें उछलकर चौपाटी में बैठे नरसी और हंसराज को छू रही है ।  हंसराज ने कहा 
ले काईं बतावेला कई होयो या इयोइज मुंडे में मूंग भरियों बैठो रेई ? 
(अरे कुछ बताएगा भी कि क्या हुआ या यूँ ही मुंह सीले हुए बैठा रहेगा )? 

नरसी ने हंसराज को बताया कि  मैं मानता हूँ कि घरवाले जो अपने लिए कर रहे है उनकी पसंद के अलावा हमारे लिए और कोई सर्वश्रेष्ठ हो ही नहीं सकता ,   जो मैंने सोचा या चाहा है उसका हमारी संस्कृति हमारे संस्कारों हमारे समाज में कोई औचित्य भी नहीं है ।
फिर भी मन में एक कसक तो रहेगी ।
दरअसल नरसी का दिल भी किसी को विगत कई वर्षों से चाह रहा था ।
हंसराज के पूछने पर नरसी ने बताया कि  चाचाजी के ससुराल आते जाते वहां एक लड़की पर दिल आ गया था । हालाँकि सामाजिक मर्यादाओं को मद्देनजर रखते हुए ये सिर्फ नजरों तक ही सिमित था ।
हंसराज नरसी के दिल को टटोलते हुए कहा , आछो सोच करियो रे , तो थने वा पसन्द है तो थारे पापा ने फोन कर'न  कह दूँ के बठिने केंसल करो और उणसूं रिश्तो सेट कराय दो , जागिरदारां ऱी छोरी है कोई एरे-गैरे की थोड़ी न मांग रह्या हों ।
(अच्छा टेंसन लिया यार तूने , तुझे वो पसन्द है तो तेरे पापा को फोन करके कह दूँ उधर वाला मामला इंकार करदे और इधर का रिश्ता तय करें , जागीरदारों की लड़की ही तो मांग रहे है कोई एरे गैरे की थोड़ी न है )।

ना रे  ए चीजां अपणे समाज में चौखी कोनी लागे और नही  इत्ती हिम्मत थाऱी अर म्हारी है के घर में इण विषय में बात कर सकां , जिका किस्मतां में लिखियोड़ी है बा इज होवण दो , या घी घणा या मुठ्ठी चणा ।      ( नहीं रे , ये चीजें अपने समाज में अच्छी नहीं लगती, और ना ही इतनी हिम्मत तुझमें या मुझमें है कि घर में इस विषय में बात कर सकें । जो किस्मत में लिखा होगा वो ही होने दो ।)। 
कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो मुझे गर्व है मेरे उन युवा बन्धुओ पर जिन्होंने हमारी परम्पराओं हमारी संस्कृति को शिखर रखते हुए अपनी इच्छाओं अपनी पसंद का गला घोटा है और ये काम नरसी ने भी किया ।

समय के साथ नरसी की धूमधाम से सगाई कर दी गई ।
जिम्मेदारियों को बढ़ते देख नरसी ने भी सोचा अब अपनी खुद की भी छोटी मोटी दूकान होनी चाहिए ।
काफी बजट नरसी ने इकठ्ठा किया हुआ था और कुछ पैसे गाँव में से उधार लेकर एक दुकान का मुहूर्त कर दिया गया

स्वयं की जिम्मेदारी पर व्यवसाय करने का प्रथम अनुभव होने के कारण परेशानियां यहां भी पैर पसार के खड़ी थी । कभी माप तौल वाले आ धमकते तो कभी सेम्पल वाले  ,
कारीगर और हेल्पर भी अब पहले जैसे कहाँ रहे , गलतियां करने पर अगर नरसी थोड़ा सा भी किसी को कुछ कह देता तो सीधा जवाब मिलता ,  भळे घणी ई जगा है सेठां , पटे तो पटाओ नहीं तो हटाओ ।
( नोकरी के लिए और भी बहुत जगह है सेठजी , अगर आपको उचित लगता है तो रखो नहीं तो छुट्टी कर दो ) ।

नरसी भी स्टाफ की तंगी को देखते हुए कुछ कह नहीं पाता और मन ही मन ये सोचकर रह जाता कि काश इनको भी मेरे जैसी परिस्थितियां मिलती तो अक्ल ठिकाने आ जाती ।
कहते है जब किस्मत का साथ न हो तो लगन और मेहनत भी काम नहीं आती , ये ही हाल नरसी में हुआ और मुश्किल से पांच -छः महीने दूकान चली होगी और दूकान फेल हो गयी ।
दूकान बन्द करके ओने पौने दाम में सामान बेचकर कुछ कर्जा चुकाया तो कुछ रह गया ।
मन में अगर कुछ करने की बाजी लगी हो और हौसले बुलंद हो तो व्यक्ति हार कैसे मान ले ?  नरसी ने फिर से दूकान खोलने का मन बना लिया था ।
लेकिन इधर घरवाले नरसी की शादी की तैयारियां करने लगे ।
दूकान के लिए कर्ज लें या शादी  के लिए , नरसी के लिए ये बड़ी विकट परिस्थिति थी ।
आखिर शादी की तारीख तय हो गयी और दूकान का प्रोग्राम निरस्त करना पड़ा ।

नरसी की शादी धूमधाम से कर दी गई ।
एक साल तक तो दो महीने काम पर और दो महीने घर , इस तरह क्रम चलता रहा ।
लेकिन आखिर कब तक ये क्रम चलता ? आखिर प्रगति हर व्यक्ति का सपना होता है ।

इस बार हंसराज को साझेदार बनाकर फिर से एक अच्छी और बड़ी दुकान की तैयारी कर ली गईं ।
मेहनत और लगन से आखिर सफलता कब तक दूर भागती , दुकान अच्छी चलने लगी , हंसराज और नरसी के अच्छे तालमेल की वजह से अब व्यवसाय में किसी तरह की समस्या भी नहीं हो रही थी ।

पांच साल बाद का समय , गाँव के चौक में आज नरसी और नरसी के वही बचपन के साथी और साथ पढ़ने वाले इकट्ठे हुए खड़े है , सबका आपस में हालचाल पूछने का दौर चल रहा है ,
कृष्णा एक सरकारी कॉलेज में बहुत बड़ा प्रोफेसर बन गया है , गोपाल और अन्य कई साथियो के भी मिठाई के व्यवसाय अच्छे चल रहे है । लखन ग्राम सेवक तो पिंटू पटवारी बन चूका है । इंकी पिंकी और सिंकी की भी शादी हो चुकी है ।
तभी सांभुराम और लाम्भू राम का आगमन होता है ,
सुना है ये दोनों भी सरकारी अध्यापक बन चुके है ,
नरसी ने कहा , अरे सांभू तो पढाई में होशियार हो पण थारो कीकर जुगाड़ बण ग्यो लाम्भू ठोटिड़ ?
(अरे सांभू तो पढाई में होशियार था पर तेरा कैसे जुगाड़ बन गया लाम्भू )।
लाम्भूराम ने हँसते हुए कहा ,  आरक्षण जिंदाबाद है ओ बन्ना जी , आपणो ई तिकड़म लाग ग्यो । (आरक्षण जिंदाबाद है बन्ना जी , अपना भी काम बन गया  ) ।
ठहाके चल ही रहे थे कि तभी दान जी रमनजी और फतेश भी आ गए ।
दान जी और रमन जी भी राजनीती में युवा नेता के रूप में अच्छी पकड़ बना चुके थे ।
साइकिल की रेस में नरसी से हमेशा आगे रहने वाला फतेश भी इटली में बहुत अच्छी जॉब कर रहा है ।

इन सब के बीच में कई प्रॉपर्टीज का मालिक , फॉर्च्यूनर जैसी गाडी में घूमने वाला , मिठाई के व्यवसाय का बहुत बड़ा सेठ नरसी खड़ा था जिसने सात सौ रूपये प्रति माह से नोकरी की शुरुवात की थी , आज संघर्ष की जंग जीत चूका था ।।

।।समाप्त ।।

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नरसी के जीवन में बीती कई घटनाएं मेरे भी समरूप थी , इसलिए इस लम्बी कहानी को लिखकर प्रथम प्रयास किया । आप सभी मित्रों ने इस लम्बी कहानी को झेला इसलिए आप सभी का सह्रदय से बहुत बहुत आभार  ।।
मैं इसमें कितना सफल हुआ ये परिणाम आप सभी आदरणीय लेखकोँ और मित्रों से जानने का इच्छुक हूँ ।  मार्गदर्शन जरूर देवें ।
धन्यवाद ।।

नरपत सिंह राजपुरोहित ह्र्दयलेखनी

नोट :: साहित्य का ज्ञान जीरो है इसलिए अपने कार्य क्षेत्र को ही चुनते हुए कहानी लेखन का प्रथम प्रयास किया हूँ , लिखने में कोई भूल भी हो सकती है , हो सकता है कहानी को धाराप्रवाह रूप न दे पाऊं तो छोटा बालक समझते हुए क्षमा करें एवं गलतियां भी बताते जावें जिससे मैं कुछ सीख सकूं ।

इसी कहानी को यूट्यूब चैनल "kayass" पर बेस्ट स्टोरीटेलर बड़े भाई श्री कालिका प्रसाद जी के श्रीमुख से सुनाई गई । आप भी सुने ।
👇🏻

               https://youtu.be/cT-6gNV5f-Y


2 comments:

  1. बिल्कुल सही लिखा है हुक्म

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