जय रघुनाथ जी री सा ,
कोई ताज़ा खबर तो नहीं पर ,समाज द्वारा पिछले कुछ समय से लिए गए दहेज और मृत्युभोज पर लिए गए फैसले पर कुछ मंथन चाहता हूँ |
मृत्य भोज पर लिए गए फैसले पर तो कार्य रूप दिया जाता है |लेकिन दहेज के मामले में कुछ सुधार होने की गुंजाइश रखनी चाहिए |
एक तरफ तो समाज और कानून दोनों बेटे और बेटी को बराबर का अधिकार देता है |दुनिया में एक पिता ही ऐसा प्राणी है जो ,चाचा ,ताऊ ,भाई ,रिश्तेदार ,मित्र और पड़ौसी से हटकर विचार रखता है की, मेरा बेटा मुझसे भी ज्यादा उन्नत्ति करे |लेकिन इस भाव में बेटी का चेप्टर छूट जाता है एक पिता की यह कामना रहती है की मेरी बेटी का घर सदा खुशियों से भरा रहे |
लेकिन बेटी सबसे ज्यादा अपने पिता की चिंता रखती है ,यह स्वाभाविक है |सोचने का विषय यह है की इस दहेज के नाम की चिंता सामान्य परिवार जिसका यदि मैं प्रतिशत कहुं को नब्बे प्रतिशत है बाप से ज्यादा बेटी को हो जाती है | अच्छी परवरिश और शिक्षा आज के युग में हर अभिभावक अपनी यथा शक्ति बेटी हो या बेटा को देनी चाहिए |बेटा सम्पूर्ण सम्पत्ति का अमूमन वारिस होता है और ९५ प्रतिशत परिवारों में बहन अपने भाई के हक़ में अपना हिस्सा हमारे संस्कारों के कारण छोड़ देती है | आज के युग में दहेज की मांग करने वालों को लडकियां खुद बहिष्कृत करती है ,इसलिए उसे भी लड़के के सामान ही परवरिश शिक्षा ,दीक्षा दी जावे तो दहेज़ समस्या स्वतः समाप्त हो जाती है | लड़की जन्म लेने के बाद अपना बचपन किशोरवस्था और शादी के समय तक अपने जिस आशियाने में समय गुजारती है, उसी से शादी के बाद दूरी बनानी पड़ती है |लड़के केलिए तो वो अपना घर होता है, लेकिन लड़की के लिए अपना घर पीहर हो जाता है |
उसे उस नए घर में कई तरह से अपने आप को ढालना भी एक चुनौती होती है जो अंत में उसका घर बन जाता है | इसी में परिवार की इज्जत है | यानि सास भी कभी बहू थी | जो समय के साथ और जिम्मदारियों के बढ़ने से पर स्वतः ही हल हो जाती है |
अतः अपने संस्कारों से कभी विपरीत समझौता नहीं करना चाहिए | घर बनाने में वक़्त लगता है और यदि दो शब्दों से घर बिगड़ता है तो इससे बड़ी विडंबना दूसरी नहीं होती ........... नरसिंह राजपुरोहित बीकानेर
विशेष नोट:- ऊपर दिए गए विचार लेखक के अपने हैं व्यक्तिगत है
कोई ताज़ा खबर तो नहीं पर ,समाज द्वारा पिछले कुछ समय से लिए गए दहेज और मृत्युभोज पर लिए गए फैसले पर कुछ मंथन चाहता हूँ |
मृत्य भोज पर लिए गए फैसले पर तो कार्य रूप दिया जाता है |लेकिन दहेज के मामले में कुछ सुधार होने की गुंजाइश रखनी चाहिए |
एक तरफ तो समाज और कानून दोनों बेटे और बेटी को बराबर का अधिकार देता है |दुनिया में एक पिता ही ऐसा प्राणी है जो ,चाचा ,ताऊ ,भाई ,रिश्तेदार ,मित्र और पड़ौसी से हटकर विचार रखता है की, मेरा बेटा मुझसे भी ज्यादा उन्नत्ति करे |लेकिन इस भाव में बेटी का चेप्टर छूट जाता है एक पिता की यह कामना रहती है की मेरी बेटी का घर सदा खुशियों से भरा रहे |
लेकिन बेटी सबसे ज्यादा अपने पिता की चिंता रखती है ,यह स्वाभाविक है |सोचने का विषय यह है की इस दहेज के नाम की चिंता सामान्य परिवार जिसका यदि मैं प्रतिशत कहुं को नब्बे प्रतिशत है बाप से ज्यादा बेटी को हो जाती है | अच्छी परवरिश और शिक्षा आज के युग में हर अभिभावक अपनी यथा शक्ति बेटी हो या बेटा को देनी चाहिए |बेटा सम्पूर्ण सम्पत्ति का अमूमन वारिस होता है और ९५ प्रतिशत परिवारों में बहन अपने भाई के हक़ में अपना हिस्सा हमारे संस्कारों के कारण छोड़ देती है | आज के युग में दहेज की मांग करने वालों को लडकियां खुद बहिष्कृत करती है ,इसलिए उसे भी लड़के के सामान ही परवरिश शिक्षा ,दीक्षा दी जावे तो दहेज़ समस्या स्वतः समाप्त हो जाती है | लड़की जन्म लेने के बाद अपना बचपन किशोरवस्था और शादी के समय तक अपने जिस आशियाने में समय गुजारती है, उसी से शादी के बाद दूरी बनानी पड़ती है |लड़के केलिए तो वो अपना घर होता है, लेकिन लड़की के लिए अपना घर पीहर हो जाता है |
उसे उस नए घर में कई तरह से अपने आप को ढालना भी एक चुनौती होती है जो अंत में उसका घर बन जाता है | इसी में परिवार की इज्जत है | यानि सास भी कभी बहू थी | जो समय के साथ और जिम्मदारियों के बढ़ने से पर स्वतः ही हल हो जाती है |
अतः अपने संस्कारों से कभी विपरीत समझौता नहीं करना चाहिए | घर बनाने में वक़्त लगता है और यदि दो शब्दों से घर बिगड़ता है तो इससे बड़ी विडंबना दूसरी नहीं होती ........... नरसिंह राजपुरोहित बीकानेर
विशेष नोट:- ऊपर दिए गए विचार लेखक के अपने हैं व्यक्तिगत है
nice post thanks sir for great information .
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