बुराई-रहित होना आस्तिक के जीवन को पूजन और भजन से युक्त बनाने में सहायक होता है। जब -नहीं’ से अपना कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता है, तब ‘है’ की स्मृति अति तीव्र हो जाती है। परम मधुर की स्मृति इतनी मधुर है कि उसकी मधुरिमा भक्त और भगवान् दोनों के लिए रस रूपा है। पल-पल में प्रभु की याद आती रहे, वह याद प्रिय को भाती रहे-इसी का नाम है ‘भजन।’ इसमें शरीरों की सहयता नहीं लेनी पड़ती, प्रत्युत भजनानन्दी प्यारे की याद में शरीरों की सुध-बुध खोता चला जाता है। शरीरों के परिधि-बन्ध के पार पहुँचकर भाव-जगत् में प्रीतम के नित्य-विहार में समाहित होता है। सीमित व्यक्तित्व की सीमा टूट जाती है और अहम्-रूपी अणु प्रेम की धातु में बदल जाता है। मानव जीवन का यही परम लाभ है, सर्वोच्च विकास है, शान्त का अनन्त से मिलन हैं, संसृति का सृजन के पार हो जाना है।
स्वामीजी श्री शरणानन्दजी महाराजजी-----
मेरे नाथ मेरे नाथ मेरे नाथ मेरे नाथ-----
स्वामीजी श्री शरणानन्दजी महाराजजी-----
मेरे नाथ मेरे नाथ मेरे नाथ मेरे नाथ-----
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