दो जून की रोटी खातिर,
घर आंगन छूट जाते हैं।
घर से निकला लाडला बेटा,
मजदूर बन जाता हैं।।
खाने पीने का ठीकाना नहीं
न आशियाना मिल पाता हैं।
दो जून की रोटी खातिर,
घर छूट जाता हैं।।
गांव की गलिया छूटती,
छूटते यार दोस्त हैं।
गरीब की तालीम छूटती,
तब दो जून की रोटी पाते हैं।।
पिता का छाया छूट जाता,
छूटता भाई बहन का प्यार हैं।
मां की ममता बेबस हो जाती,
जब दो जून रोटी कमाने जाते हैं।।
महानगरों की माया न समझ पाते,
जब गांव छोङ शहर जाते हैं।
दर दर की ठोकर खाकर,
दो जून की रोटी पाते हैं।।
तुलसाराम राजपुरोहित
वरिष्ठ अध्यापक
राउमावि बिछावाडी,सांचौर
bahut hi Shandar Kavita
ReplyDeleteSabhi is 2 June Ki Roti khane Ki Talash Me Hi idhar udhar bhatak raha hai
ReplyDeletePaapi Pet Ka Jo Sawal hai
बिल्कुल सही कहा आदरणीय भाई साहब
Deleteबहुत बहुत आभार सवाईसिहजी का मेरी कविता "दो जून की रोटी" व"कोरोना का कहर" को राजपुरोहित समाज के पेज पर जगह देने के लिए।
ReplyDeleteस्वागत है आपका ब्लॉग पर पहली बार पधारने पर ....👏👏👏
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