राजपुरोहित समाज एक ऐसी जाति है जिसे बहुत उच्च दर्जे से देखा जाता है। इसके बारे में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। यह योद्धा जाति अब बहुत कम संख्या में बची है, यहाँ तक कि राजस्थान में भी बहुत कम लोग इसके बारे में जानते हैं। इसके नाम को लेकर कई दंतकथाएँ मौजूद हैं। इनमें से एक प्रमुख कथा यह है कि अलग-अलग ब्राह्मण, जो राजपुरोहित पद पर थे, उनसे मिलकर यह जाति बनी। एक अन्य मान्यता यह है कि राजपुरोहित नाम महज 50 वर्ष पहले ही पड़ा है, अन्यथा ये त केवल 'पुरोहित' ही थे। साक्ष्यों के अभाव में इस तरह की अनेक कथाएँ और कहानियाँ प्रचलित रही हैं। आइए, पड़ताल करते हैं कि आखिर सच्चाई क्या है? समाज के नाम को लेकर लोगों में इतनी गलतफहमियाँ क्यों हैं।
राजपुरोहित समाज मुख्यतः कृषि और युद्ध से जुड़ा रहा है। सांस्कृतिक तौर पर, राजपुरोहित, राजपूत और चारण समाज के त्रिक (trio) का हिस्सा रहे हैं। ये तीनों ही समाज शाक्त परंपरा से आते हैं, हालाँकि राजपुरोहित समाज में शैव धर्म की प्रधानता भी रही है।
प्राचीन काल में जब ऋषि-मुनियों का युग था, वे ही समाज को दिशा दिया करते थे। उस समय समाज वर्णों में नहीं बंटा था। पुरोहित मुख्य तौर पर समाज के शीर्षस्थ सदस्य होते थे। इन्हीं पुरोहितों में से कुछ लोग ऋषि बन जाते थे। ये ऋषि दो प्रकार के होते थे - 'राजऋषि' और 'ब्रह्मऋषि'। यह कोई वर्ण व्यवस्था नहीं थी। राजऋषि वे ऋषि होते थे जो राजदरबारों या राजाओं को मार्गदर्शन देते थे, जबकि ब्रह्मऋषि धार्मिक कार्यों तथा अन्य आध्यात्मिक क्रियाकलापों में संलग्न रहते थे।
जब समाज कार्य के आधार पर वर्णों में विभाजित होने लगा, तब ये ऋषि ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय बन सकते थे। अर्थात, पुरोहितों का समूह धीरे-धीरे वर्णाश्रम व्यवस्था में बँटने लगा। इन्हीं पुरोहितों में कुछ समूह ऐसे भी थे जिन्होंने कभी वर्ण व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया। ये पुरोहित ज्यादातर युद्ध संबंधी कार्यों से जुड़े थे। इन्हीं पुरोहितों को 'राजगुरु पुरोहित' भी कहा जाता था। जो पुरोहित ब्रह्मऋषि बने और फिर ब्राह्मण वर्ण में स्थापित हुए, वे 'ब्राह्मण पुरोहित' कहलाए।
समय के साथ, ब्राह्मण पुरोहित कर्मकांडों में लिप्त होते गए, वहीं राजगुरु पुरोहित लगातार शासकों को निर्देशित करते रहे और युद्धों आदि में संलग्न रहे। इनका कर्मकांडी ब्राह्मण पुरोहितों से कभी कोई लेना-देना नहीं था और ये एक मुक्त तथा स्वतंत्र समाज के रूप में दूरस्थ इलाकों में स्थापित होते गए। परन्तु लगातार युद्धों में भाग लेने, कठोर सामाजिक नियमों का पालन करने तथा विपरीत परिस्थितियों में रहने के कारण इनकी संख्या लगातार घटती गई। वहीं, वर्ण व्यवस्था में बँधे ब्राह्मण पुरोहित समय के साथ स्थापित भी हुए और उनकी शक्ति भी बढ़ी।
ये रेगिस्तानी इलाकों में रहने वाले राजगुरु पुरोहित प्राकृत भाषा बोलने वाले लोग थे, जो कालांतर में मारवाड़ी भाषा के रूप में विकसित हुई। इन्हीं के कारण इनके स्थानीय नाम अस्तित्व में आए, जैसे प्रोहित, पिरोयत, परोत इत्यादि, परंतु आधिकारिक रूप से ये 'राजगुरु पुरोहित' के रूप में दर्ज होते थे।
समय के साथ, जैसे-जैसे वर्ण व्यवस्था का प्रभाव बढ़ा, इन राजगुरु पुरोहितों का प्रभाव और शक्ति क्षीण होती गई और ये अपना ऐतिहासिक स्वरूप खोते गए। अब ये अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए संघर्ष करने लगे और अपनी क्रमबद्ध साहित्य रचना से वंचित रहने लगे। वर्णव्यवस्था के प्रभाव में लोग इन्हें भूलवश ब्राह्मण पुरोहित समझने लगे। कहीं-कहीं, समझ और जानकारी के अभाव में, ताम्रपत्रों और देवलियों पर 'ब्राह्मण' शब्द लिख दिया जाता था, जिससे इनके बारे में और अधिक भ्रामक जानकारी फैलने लगी। इसी भ्रम को दूर करने के लिए, भाट-बहियों में इनकी उत्पत्ति बताने हेतु ब्राह्मण उत्पत्ति का सहारा लिया जाने लगा, जबकि कई जगह इस समाज की कुछ गोत्रों की उत्पत्ति राजपूत जातियों से या अग्नि से बताई गई। कालांतर में उत्पन्न हुए इसी भ्रम तथा पूर्ण जानकारी के अभाव से ऐसी स्थितियाँ पैदा हुईं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रारंभिक कालखंड में ब्राह्मण को ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न तथा पुरोहितों को अग्नि से उत्पन्न होने की बात कही गई थी।
अब राजगुरु पुरोहित समाज एक ऐसा समुदाय बनकर रह गया था, जिसने अपने प्राचीन गुणों को समेटे रखा था, और जिसके बारे में लोगों के लिए उसे राजपूत, पुरोहित अथवा ब्राह्मण के खाँचों में विभेदित करना कठिन हो गया। जब राज्यों में राजपुरोहित पद का अनिवार्यकरण होने लगा, तो जहाँ ब्राह्मण पुरोहित प्रभावी थे, वे वहाँ राजपुरोहित बने; और जहाँ राजगुरु पुरोहित प्रभावी थे। वे वहाँ राजपुरोहित बने। ब्राह्मण पुरोहित राजपुरोहित पद पर वंशानुगत नहीं थे, परंतु राजगुरु पुरोहित वंशानुगत थे और उन्हें अपने गुणों के कारण 'राजपुरोहित' जाति का टाइटल भी मिला। यह टाइटल हमें 16वीं शताब्दी के एक राजपुरोहित सती जी के शिलालेख के माध्यम से पता चलता है। इससे पता चलता है कि देशज नामों के साथ-साथ आधिकारिक नाम, जैसे 'राजगुरु पुरोहित' अथवा 'राजपुरोहित' भी खूब प्रचलित थे।
1910 में राजपुरोहित हितकारिणी सभा, बीकानेर की स्थापना से हमें ज्ञात होता है कि 'राजपुरोहित' टाइटल का प्रयोग बिल्कुल भी नया नहीं है। बाद में, एकरूपता तथा अपनी स्वतंत्र पहचान कायम करने के लिए यह नाम संपूर्ण समाज द्वारा अपनाया गया। इस प्रकार हमें पता चलता है कि साक्ष्यों के अभाव में राजपुरोहित समाज का जबरन ब्राह्मणीकरण करने का प्रयास समय-समय पर किया गया, परन्तु ये प्रयास कामयाब नहीं हो सके। एक समाज, जिसके लिए एक समय अपना अस्तित्व बचा पाना भी मुश्किल रहा हो, उससे आधिकारिक दस्तावेजीकरण की उम्मीद करना उचित नहीं है।




No comments:
Post a Comment
यदि हमारा प्रयास आपको पसंद आये तो फालोवर(Join this site)अवश्य बने. साथ ही अपने सुझावों से हमें अवगत भी कराएँ. यहां तक आने के लिये सधन्यवाद.... आपका सवाई सिंह 9286464911